Thursday, November 06, 2008

कब जानी थी उसने १ रुपए की कीमत? शायद गरीबी ने उसे माँ के पेट से ही सिखा दिया था | उसे तो अब यह भी याद न था की कबसे उसने पैसे जोड़ने शुरू किए | बरसों से पैसे जोड़ता रहा उसका परिवार, पर कभी पुरे नही पड़े | न तो उसे शराब और जुए की लत थी न ही वो फिजूल खर्ची था | साल भर पैसे जुटाता तब कहीं दिवाली पर घर में चार दिए जलते |  

गाँव छोड़ शहर में आ बसा, मेहनत मजदूरी कर कमाने खाने लगा | शहर उसे कभी नही भाया, अजीब सी दौड़ में सब यहाँ भागते रहते | वो शहर में होते हुए भी शहर का कभी हिस्सा नही रहा | जब अपनी हाथ गाड़ी के पास दो पल सुस्ताने बैठता तो दूर से ही शहर को और शहरवासियों को निहारता रहता | चमचमाती गाड़ियों में लोग सर्राटे से निकल जाते | एक अजीब सी उधेड़ बुन में सब फसे थे | कहने को उनमे और इसमें कई फरक थे पर फ़िर भी पैसे जोड़ने की दौड़ में दोनों लगे थे |  

एक सुखी रोटी देख उसने पेट भरना सीख लिया था | शहर की दौड़ती भीड़ को देख उसने जीना सीख लिया था |